जब एक ही चमन की तुम हो बहार दोनों
जब एक ही शजर के हो बर्ग-ओ-बार दोनों
जब एक ही क़लम के हो शाहकार दोनों
जब एक ही वतन के हो इफ़्तिख़ार दोनों
आपस की फूट से हो क्यूँ दिल-फ़िगार दोनों
हाँ छोड़ दो ये रंजिश बन जाओ यार दोनों
फ़रज़ंद हो हक़ीक़ी तुम मादर-ए-वतन के
परवान चढ़ रहे हो मेवों से इस चमन के
यकसाँ हैं जब क़रीने रफ़्तार के चलन के
दोनों हो चाँद-सूरज इस गर्दिश-ए-कुहन के
मुहताज हैं तुम्हारे लैल-ओ-नहार दोनों
हाँ छोड़ो ये रंजिश बन जाओ यार दोनों
आपस की बरहमी से ग़ैरों की है ग़ुलामी
क्यूँ एक दूसरे से करते हो बद-कलामी
ख़्वाब-ओ-ख़याल है इक अब दौर-ए-शाद-कामी
बर्बादियों का बाइ'स तकरार है मक़ामी
कर लूँ यगानगत के क़ौल-ओ-क़रार दोनों
हाँ छोड़ दो ये रंजिश बन जाओ यार दोनों
मज़हब-परस्तियों ने दीवाना कर दिया है
अपनी बिरादरी से बेगाना कर दिया है
बर्बाद मुर्ग़-ए-दिल का काशाना कर दिया है
ख़ाली मय-ए-तरब से पैमाना कर दिया है
जब एक मय-कदे के हो बादा-ख़्वार दोनों
हाँ छोड़ दो ये रंजिश बन जाओ यार दोनों
रहने में कुछ है 'कैफ़ी' बर्बाद हो के रहना
क्या गोशा-ए-क़फ़स में नाशाद हो के रहना
सीखो वतन में अपने आज़ाद हो के रहना
गुलज़ार-ए-आरज़ू में शमशाद हो के रहना
बाहें गले में डालो बे-इख़्तियार दोनों
हाँ छोड़ दो ये रंजिश बन जाओ यार दोनों

नज़्म
हिन्दू मुसलमानों का इत्तिहाद
चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी