नदामत की कड़ी धूप में नहाए हुए
ज़ीस्त के इस कड़े कोस पड़ाव में
जहाँ सीपियाँ रौशनी के दुख़ूल के लिए दरीचे खोला नहीं करतीं सोचता हूँ
इस भरी दुनिया में तन्हा खड़ा
ख़ाकिस्तर हसरतों की उँगली थामे कुम्हलाए हुए
अरमाँ यूँ भी निकल सकते थे मोतियों की चमक-दमक की चाह में दर-ब-दर फिरे बग़ैर
रिश्तों के ताने-बाने तोड़ कर
ज़ईफ़-ओ-नज़ार माँ बाप की मुंतज़िर आँखों को पीछे छोड़ के
मैं ने इस बड़े शहर के चकाचौंद के पीछे भागते भागते
क्या खोया है क्या पाया है
सौंधी मिट्टी की महक ताज़ा गंदुम की ख़ुश्बू कुएँ का ठंडा पानी
ममता का आँचल माँ-जाइयों का प्यार भाइयों की रोब जमाने वाली मार
कितना तरसाती हैं मुझे आज
किस क़दर घबराता था मैं ख़ूबाँ से नज़र मिलाते हुए
आज अड़ जाता हूँ मैं
शर्म आती नहीं मुझे अपने गुनाह छुपाते हुए
उन सब का मुजरिम हूँ मैं
अपने ज़मीर के कटघरे में खड़ा हूँ अपनी ही रूह को मुक़य्यद किए
हिजरत की सलीब अपने ना-तवाँ कंधों पर उठाए
कीलें साथ रखता हूँ मैं
कोई है जो आ कर मुझे सूली पर चढ़ाए
नज़्म
हिजरत की सलीब
परवेज़ शहरयार