हिज्र की रातें काली काली
इस पर याद किसी की जारी
ऐसे गहरे सन्नाटे में
किस से कहें हम ग़म की कहानी
दुनिया सारी सोती है
तारे गिनना बेचैनी में
आहें भरना बेताबी में
आह हमारी सोने वालो
इस हालत में लाचारी में
रात बसर यूँ होती है
कुश्ता-ए-ग़म की अब तुर्बत पर
हसरत रोती है हसरत पर
एक उदासी का आलम है
सोने वाले की क़िस्मत पर
शम-ए-बालीं रोती है
जिस में हसरत की बस्ती है
जिस की बुलंदी हर पस्ती है
या'नी जिस को दिल कहते हैं
जिस पर सब दुनिया हँसती है
एक अनोखा मोती है
चर्ख़ ने बेदर्दी बे-रहमी
सच तो यही है उस से सीखी
आओ 'आलिम' कुछ तो बताओ
सब कुछ है पर यास किसी की
याद भला क्यूँ खोती है
नज़्म
हिज्र की रातें
मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी