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हवा को आवारा कहने वालो | शाही शायरी
hawa ko aawara kahne walo

नज़्म

हवा को आवारा कहने वालो

नोशी गिलानी

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हवा को आवारा कहने वालो
कभी तो सोचो, कभी तो लिक्खो

हवाएँ क्यूँ अपनी मंज़िलों से भटक गई हैं
न उन की आँखों में ख़्वाब कोई

न ख़्वाब में इंतिज़ार कोई
अब उन के सारे सफ़र में सुब्ह-ए-यक़ीन कोई

न शाम-ए-सद-ए'तिबार कोई
न उन की अपनी ज़मीन कोई न आसमाँ पर कोई सितारा

न कोई मौसम न कोई ख़ुश्बू का इस्तिआरा
न रौशनी की लकीर कोई, न उन का अपना सफ़ीर कोई

जो उन के दुख पर किताब लिक्खे
मुसाफ़िरत का अज़ाब लिखे

हवा को आवारा कहने वालो
कभी तो सोचो!