मौत बंदूक़ लिए फिरती है
गली-कूचों में दनदनाती है
कान में सीटियाँ बजाती है
आसमाँ नाक पर उठाती हुई
ठोकरों से ज़मीं उड़ाती हुई
तख़्तियाँ ग़ौर से पढ़ती है सब मकानों की
गालियाँ बकती गुज़रती है हर मोहल्ले से
रेज़गारी भी चुराती है रोज़ गल्ले से
मौत बंदूक़ लिए फिरती है
कोई घर से निकल नहीं पाता
उस के डर से निकल नहीं पाता
बड़ी दहशत है उस की घर घर में
मौत जैसे कि गली का दादा
जो किसी दूसरे मोहल्ले से
भत्ता लेने को जो आया तो पलट कर न गया
रोज़ गलियों में आ निकलती है
सब दुकानों में पर्ची गिरती है
मौत बंदूक़ लिए फिरती है
नज़्म
ग़ुंडा
अली इमरान