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गुनाह और मोहब्बत | शाही शायरी
gunah aur mohabbat

नज़्म

गुनाह और मोहब्बत

नून मीम राशिद

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गुनाह के तुंद-ओ-तेज़ शोलों से रूह मेरी भड़क रही थी
हवस की सुनसान वादियों में मिरी जवानी भटक रही थी

मिरी जवानी के दिन गुज़रते थे वहश-आलूद इशरतों में
मिरी जवानी के मय-कदों में गुनाह की मय छलक रही थी

मिरे हरीम-ए-गुनाह में इश्क़ देवता का गुज़र नहीं था
मिरे फ़रेब-ए-वफ़ा के सहरा में हूर-ए-इस्मत भटक रही थी

मुझे ख़स-ए-ना-तवाँ के मानिंद ज़ौक़-ए-इस्याँ बहा रहा था
गुनाह की मौज-ए-फ़ित्ना-सामाँ उठा उठा कर पटक रही थी

शबाब के अव्वलीं दिनों में तबाह ओ अफ़्सुर्दा हो चुके थे
मिरे गुलिस्ताँ के फूल जिन से फ़ज़ा-ए-तिफ़्ली महक रही थी

ग़रज़ जवानी में अहरमन के तरब का सामान बन गया मैं
गुनह की आलाइशों में लुथड़ा हुआ इक इंसान बन गया मैं

मोहब्बत
और अब कि तेरी मोहब्बत-ए-सरमदी का बादा-गुसार हूँ मैं

हवस-परस्ती की लज़्ज़त-ए-बे-सबात से शर्मसार हूँ मैं
मिरी बहीमाना ख़्वाहिशों ने फ़रार की राह ली है दिल से

और उन के बदले इक आरज़ू-ए-सलीम से हम-कनार हूँ मैं
दलील-ए-राह-ए-वफ़ा बनी हैं ज़िया-ए-उल्फ़त की पाक किरनें

फिर अपने फ़िरदौस-ए-गुमशुदा की तलाश में रह-सिपार हूँ मैं
हुआ हूँ बेदार काँप कर इक मुहीब ख़्वाबों के सिलसिले से

और अब नुमूद-ए-सहर की ख़ातिर सितम-कश-ए-इंतिज़ार हूँ मैं
बहार-ए-तक़्दीस-ए-जावेदाँ की मुझे फिर इक बार आरज़ू है

फिर एक पाकीज़ा ज़िंदगी के लिए बहुत बे-क़रार हूँ मैं
मुझे मोहब्बत ने मासियत के जहन्नमों से बचा लिया है

मुझे जवानी की तीरा-ओ-तार पस्तियों से उठा लिया है