गुलाबी चोंच में कीड़े लिए उड़ती है गौरय्या
जिधर इक आशियाँ में उस के बच्चों ने अभी आँखें नहीं खोलीं
मगर हैं भूक से बे-कल
मछेरे सुब्ह की धुंदली रिदाओं में
पुराने छप्परों की कोख से शानों पे रख कर जाल निकले हैं
वहीं पर खाँसते हैं चंद मेहनत-कश अलाव के किनारे बीड़ियाँ पी कर
फ़लक-पैमा इमारत के लिए मज़दूर पत्थर तोड़ते हैं मुंहमिक हो कर
सहर की सुरमई धुंदली रिदाओं में
मैं गहरी सोच में गुम हूँ
सफ़-ए-दानिश-वराँ क्या इन से बरतर है?
नज़्म
गुलाबी चोंच
अम्बर बहराईची