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गृहस्ती | शाही शायरी
grihasti

नज़्म

गृहस्ती

सज्जाद बाबर

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इक तज़ब्ज़ुब की सराए
साअ'तों के मेल से

बोझल मगर रौशन छतें दीवार-ओ-दर
और राह-दरी में उभरती

अजनबी क़दमों की
हल्की तेज़ चाप

और ख़ामोशी का लम्स जैसे साइबा
फिर सहन में आ कर उतरते

क़ाफ़िलों की फ़ासलों से चोर आवाज़ें
सफ़र में यूँ अचानक आने वाले

इस पड़ाव की
लिपटती मेज़बाँ ठंडक से

सेहर-आगीं तरावत पा रही हैं
सीढ़ियों से दूर

दालानों के गोशे में खड़ा इक अक्स
अपने हम-नशीनों

हम-रकाबों का अमीर
उन का मुहिब्बी

फिर भी
इस तश्कीक की

बिल्लोर साअ'त में
हर इक से बद-गुमाँ

इस सोच में ग़लताँ
कि जैसे

इस सफ़र हो राएगाँ