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गोर-ए-ग़रीबाँ | शाही शायरी
gor-e-ghariban

नज़्म

गोर-ए-ग़रीबाँ

नज़्म तबा-तबाई

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विदा-ए-रोज़-ए-रौशन है गजर शाम-ए-ग़रीबाँ का
चरा-गाहों से पलटे क़ाफ़िले वो बे-ज़बानों के

क़दम घर की तरफ़ किस शौक़ से उठता है दहक़ाँ का
ये वीराना है मैं हूँ और ताइर आशियानों के