विदा-ए-रोज़-ए-रौशन है गजर शाम-ए-ग़रीबाँ का
चरा-गाहों से पलटे क़ाफ़िले वो बे-ज़बानों के
क़दम घर की तरफ़ किस शौक़ से उठता है दहक़ाँ का
ये वीराना है मैं हूँ और ताइर आशियानों के

नज़्म
गोर-ए-ग़रीबाँ
नज़्म तबा-तबाई
नज़्म
नज़्म तबा-तबाई
विदा-ए-रोज़-ए-रौशन है गजर शाम-ए-ग़रीबाँ का
चरा-गाहों से पलटे क़ाफ़िले वो बे-ज़बानों के
क़दम घर की तरफ़ किस शौक़ से उठता है दहक़ाँ का
ये वीराना है मैं हूँ और ताइर आशियानों के