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गिरेबान | शाही शायरी
gireban

नज़्म

गिरेबान

मोहम्मद हनीफ़ रामे

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मैं ने गुलाब के पौदे से पूछा
आज कल तुम पर फूल कम और काँटे ज़ियादा आ रहे हैं

कहने लगा मैं तुम्हारा बे-दाम ग़ुलाम हूँ
इन दिनों तुम दुश्मनी के काँटे बोने में मसरूफ़ हो

तुम्हें काँटों की ज़रूरत है
जिस रोज़ तुम दोस्ती के सफ़र पर निकलोगे

देखना मैं कैसे फूलों के अम्बार लगा दूँगा
मैं ने फ़ाख़्ता से कहा

दुनिया में हर तरफ़ बद-अमनी फैली है
वो तुम्हारी शाख़-ए-ज़ैतून वो शाख़-ए-अम्न कहाँ गई

बोली मैं ने तो ला कर तुम्हारे हाथ में दे दी थी
तुम्ही कहीं रख कर भूल गए हो

देखो शायद तुम्हारी बंदूक़ की नाली में न पड़ी हो
मैं ने तारों भरे आसमान की तरफ़ हसरत से देखा

इंसान के दिन कब फिरेंगे
ये क़त्ल-ओ-ग़ारत ये ख़ून-ख़राबा कब ख़त्म होगा

ये ज़ेर-दस्तों का सब्र ये ज़बरदस्तों का जब्र
ये लूट और झूट आख़िर हमारे नसीब में क्यूँ लिख दिए गए हैं

एक सितारा टूटा
और मेरे दिल के तख़्ता-ए-सियाह पर रक़म कर गया

''झाँक लो अपने गिरेबाँ में''