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गिरेबाँ का फ़ासला | शाही शायरी
gireban ka fasla

नज़्म

गिरेबाँ का फ़ासला

राही मासूम रज़ा

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कट गई रात मगर
हिज्र के जागते पैराहन से

रात की मल्गजी अफ़्सुर्दा-महक आती है
हल्क़ा-ए-बाद-ए-सबा गर्दन में

वक़्त सड़कों पे खिंचा फिरता है
राह जाती ही नहीं कोई बयाबाँ की तरफ़

हाथ बढ़ते ही नहीं अपने गरेबाँ की तरफ़