मैं सोचता रहा
लेकिन न कोई भेद खुला
तिरे वजूद के साए में
आग सी क्यूँ है
ये कैसा रंग है
मिट्टी में जज़्ब हो कर भी
सियाह रात के आँचल में जगमगाता है
कि जैसे चाँद
समुंदर में डूब जाता है
नज़्म
गिल-ए-लाज-वर्द
खलील तनवीर
नज़्म
खलील तनवीर
मैं सोचता रहा
लेकिन न कोई भेद खुला
तिरे वजूद के साए में
आग सी क्यूँ है
ये कैसा रंग है
मिट्टी में जज़्ब हो कर भी
सियाह रात के आँचल में जगमगाता है
कि जैसे चाँद
समुंदर में डूब जाता है