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गिल-ए-लाज-वर्द | शाही शायरी
gil-e-laj-ward

नज़्म

गिल-ए-लाज-वर्द

खलील तनवीर

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मैं सोचता रहा
लेकिन न कोई भेद खुला

तिरे वजूद के साए में
आग सी क्यूँ है

ये कैसा रंग है
मिट्टी में जज़्ब हो कर भी

सियाह रात के आँचल में जगमगाता है
कि जैसे चाँद

समुंदर में डूब जाता है