घास भी मुझ जैसी है
पाँव-तले बिछ कर ही ज़िंदगी की मुराद पाती है
मगर ये भीग कर किस बात गवाही बनती है
शर्मसारी की आँच की
कि जज़्बे की हिद्दत की
घास भी मुझ जैसी है
ज़रा सर उठाने के क़ाबिल हो
तो काटने वाली मशीन
उसे मुहमल बनाने का सौदा लिए
हमवार करती रहती है
औरत को भी हमवार करने के लिए
तुम कैसे कैसे जतन करते हो
न ज़मीं की नुमू की ख़्वाहिश मरती है
न औरत की
मेरी मानो तो वही पगडंडी बनाने का ख़याल दुरुस्त था
जो हौसलों की शिकस्तों की आँच न सह सकें
वो पैवंद-ए-ज़मीं हो कर
यूँही ज़ोर-आवरों के लिए रास्ता बनाते हैं
मगर वो पर-ए-काह हैं
घास नहीं
घास तो मुझ जैसी है!

नज़्म
घास तो मुझ जैसी है
किश्वर नाहीद