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ग़रीब-ख़ाने में | शाही शायरी
gharib-KHane mein

नज़्म

ग़रीब-ख़ाने में

खालिद इरफ़ान

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ख़ुदा की क़ुदरत वो नाक अपनी बड़े घराने में घिस गए हैं
जो अक़रबा से अकड़ रहे थे वो सम्धियाने में घिस गए हैं

हमारे घर तीन रोज़ रह कर चले गए वो ब्लैक-ब्यूटी
मगर कम-अज़-कम पचास साबुन ग़रीब-ख़ाने में घिस गए हैं

मिली है जब भी उन्हें वज़ारत असेंबली हो गई मुअत्तल
हमारी मिल्लत के रहनुमा तो हलफ़ उठाने में घिस गए हैं

जो तेरे वालिद ने मेरी शादी पे एक जोड़ी दिए थे जूते
वो तेरे मैके की शाह-राहों पे आने जाने में घिस गए हैं

सहर को उठती नहीं हैं बेगम बग़ैर तबला बग़ैर सरगम
हमारे घर के तमाम बर्तन उन्हें जगाने में घिस गए हैं

मुशाएरे में सुनाई हम ने जो डेढ़-सौ शेर की मुसद्दस
बहुत से शाएर तो रक्खे रक्खे ही शामियाने में घिस गए हैं