एक दिन 'ग़ालिब' के पढ़ कर शेर मैरी अहलिया
मुझ से बोली आप तो कहते थे इन को औलिया
आशिक़-ए-बिन्त-ए-एनब को आप कहते हैं वली
फ़ाक़ा-मस्ती में भी हर दम कर रहा है मय-कशी
पूजने से मह-जबीनों के ये बाज़ आता नहीं
और फिर काफ़िर कहे जाने से शरमाता नहीं
कोई भी महवश अकेले में अगर आ जाए हाथ
छेड़ख़्वानी कर दिया करता था अक्सर उस के साथ
बद-गुमानी का अगर महबूब की होता न डर
उस के पैरों का वो बोसा लेता रहता रात भर
कोई रखता था अगर उस से ज़रा शर्म-ओ-हिजाब
रोब दिखलाने को उस से कह दिया करते जनाब
''हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मह-परस्ती एक दिन''
''वर्ना हम छेड़ेंगे रख कर उज़्र-ए-मस्ती एक दिन''
गर किसी मेहमान के आने की होती थी ख़बर
बोरिया तक भी नहीं होता था उस नंगे के घर
इस लिए छाई हुइ थी उस के घर में मुफ़्लिसी
कल के डर से आज पीने में न करता था कमी
मय-कशी को गर कोई साक़ी नहीं देता था जाम
ओक से पी कर ही वो अपना चला लेता था काम
मरते मरते भी शराब उस की न हो पाई थी कम
जाम को तकता रहा जब तक रहा आँखों में दम
उस के इस किरदार पर मुझ से न करना गुफ़्तुगू
ख़ाक में जिस ने मिला दी ख़ानदानी आबरू
इस क़दर पहुँचे हुए शाएर का ये किरदार है
शेर कहना छोड़ दीजे शाएरी बे-कार है
इस से पहले कि मिरा बर्बाद हो जाए ये घर
आप बस घर में रहें शेर-ओ-अदब को छोड़ कर
मय-कशी और आप हों मतलूब-ओ-तालिब की तरह
सोचती हूँ आप हो जाएँ न 'ग़ालिब' की तरह
नज़्म
'ग़ालिब' का पोस्टमार्टम
नश्तर अमरोहवी