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ग़ालिब | शाही शायरी
ghaalib

नज़्म

ग़ालिब

गुलज़ार

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बल्ली-मारां के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ
सामने टाल की नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे

गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वा
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे

एक बकरी के मिम्याने की आवाज़
और धुँदलाई हुई शाम के बे-नूर अँधेरे साए

ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ी-वालान कै कटरे की बड़ी-बी जैसे

अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले
इसी बे-नूर अँधेरी सी गली-क़ासिम से

एक तरतीब चराग़ों की शुरूअ' होती है
एक क़ुरआन-ए-सुख़न का सफ़हा खुलता है

असदुल्लाह-ख़ाँ-'ग़ालिब' का पता मिलता है