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'ग़ालिब' | शाही शायरी
ghaalib

नज़्म

'ग़ालिब'

चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी

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'ग़ालिब' तेरा कलाम नवा-ए-सरोश है
इलहाम-ए-ग़ैब-ओ-नग़्मा-ए-साज़-ए-ख़मोश है

ऐसा भरा हुआ है ग़ज़ल में सिंगार-रस
इक जन्नत-ए-समाअ' है फ़िरदौस-ए-गोश है

आसाँ नहीं जमाल-ए-मआ'नी का देखना
हर शाहिद-ए-ख़याल तिरा पर्दा-पोश है

जो बात है वो शोख़ी-ए-गुलदस्ता-ए-चमन
जो लफ़्ज़ है बहार-ए-कफ़-ए-गुल-फ़रोश है

मौज-ए-रवाँ हैं मिस्रा-ए-बे-साख़्ता तिरे
बहर-ए-सुख़न में बहर-ए-मोहब्बत का जोश है

इन मोतियों की क़द्र है शाहों के ताज में
परखे नज़र से उन को जो गौहर-फ़रोश है

कैफ़-ए-सुख़न से मस्त हूँ तेरी ग़ज़ल सुनीं
इस बज़्म में जिन्हें हवस-ए-नाव-नोश है

तू ने चमन चमन में शगूफ़े खिला दिए
फ़ितरत तिरे कलाम की गुलशन-ब-दोश है

अफ़्सूँ-तराज़ियाँ तिरी मुँह की लती रहीं
गुल की ज़बान बंद है ग़ुंचा ख़मोश है

बाला तेरा मक़ाम दुनिया-ए-शेर में
'उर्फ़ी' भी एक बंदा-ए-हल्क़ा-बगोश है

दुनिया तिरे ख़याल में है चश्मा-ए-सराब
रंगीनी-ए-निशात-ओ-तरब ख़्वाब-ए-दोश है

तेरी नज़र में शाहिद-ओ-मशहूद एक हैं
दुनिया-ए-बे-ख़ुदी तुझे दुनिया-ए-होश है

दाना तिरी निगाह में था ख़िर्मन-ए-मुराद
तुझ को ख़बर थी क़तरे में दरिया का जोश है

दैर-ओ-हरम पे भी नहीं ये राज़ मुन्कशिफ़
हर्फ़-ए-अज़ल है कौन जो मा'ना-फ़रोश है

अफ़्सुर्दा दाग़ से है तिरे महफ़िल-ए-अदब
ने वो सुरूर-ओ-सोज़ न जोश-ओ-ख़रोश है

कितनी तिरे मज़ार पे छाई है बेकसी
इक शम्अ' अश्क-रेज़ थी वो भी ख़मोश है

छलकी जो थी कभी तिरे रंगीं अयाग़ से
'कैफ़ी' उसी शराब का इक जुरआ'-नोश है