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फ़त्ह का ग़म | शाही शायरी
fath ka gham

नज़्म

फ़त्ह का ग़म

ऐतबार साजिद

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अव्वलीं शहर की तस्ख़ीर में पहलू थे बहुत
रंज के ख़ौफ़ के हैरत के शकेबाई के

फिर ये देखा कि तन-ओ-जाँ के असासे के एवज़
मिट्टी हम जिस पे क़दम रखते हैं

जिस की ठोड़ी पे लहू रंग-ए-अलम रखते हैं
उस की ममता की हरारत से अलग चीज़ नहीं

जिस में हम अपना नसब अपना जनम रखते हैं
अपने होने का भरम रखते हैं