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फ़रेब | शाही शायरी
fareb

नज़्म

फ़रेब

कफ़ील आज़र अमरोहवी

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हर एक शाम मुझे यूँ ख़याल आता है
कि जैसे टाट का मैला फटा हुआ पर्दा

तुम्हारे हाथ की जुम्बिश से काँप जाएगा
कि जैसे तुम अभी दफ़्तर से लौट आओगे

मुझे तो याद नहीं कुछ तुम्हारे सर की क़सम
मगर पड़ोस की लड़की बता रही थी कि मैं

अब अपनी माँग में अफ़्शाँ नहीं सजाती हूँ
तवे पे रोटियाँ अक्सर जलाई हैं मैं ने

शकर के बदले नमक चाय में मिलाती हूँ
वो कह रही थी कि नंगी कलाइयाँ मेरी

तमाम उम्र यूँही चूड़ियों को तरसेंगी
ग़मों की धूप में जलते हुए इस आँगन पर

मसर्रतों की घटाएँ कभी न बरसेंगी
वो कह रही थी कि तुम अब कभी न आओगे

गली के मोड़ पे लेकिन हर एक शाम मुझे
तुम्हारे क़दमों की आहट सुनाई देती है

हर एक शाम मुझे यूँ ख़याल आता है
कि जैसे तुम अभी दफ़्तर से लौट आओगे