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फ़नकार और मौत | शाही शायरी
fankar aur maut

नज़्म

फ़नकार और मौत

फ़रीद इशरती

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जब मुझे ये ख़याल आता है
एक फ़नकार मर नहीं सकता

उस की तख़्लीक़ ज़िंदा रहती है
उस का किरदार मर नहीं सकता

याद आते हैं मुझ को वो फ़नकार
ज़िंदगी-भर जो ज़हर पी के जिए

ग़म की तस्वीर बन के ज़िंदा रहे
दहर-ए-फ़ानी में अपने फ़न के लिए

और इस दहर के निकम्मों ने
उन की राहों में ख़ार बिखराए

जब ये दश्त-ए-जुनूँ में और बढ़े
उन के दामन के तार उलझाए

लाख रोका उन्हें ज़माने ने
चल दिए जिस तरफ़ चलते रहे

चंद राहें निकाल कर अपनी
जावेदाँ अपना नाम करते रहे

आज दुनिया के इस अँधेरे में
जल रहे हैं वही चराग़ जिन्हें

आँधियों ने जलाया था इक रोज़
ज़िंदगी की हसीन राहों में

एक फ़नकार है चराग़ वही
जिस को कोई बुझा नहीं सकता

जागती जगमगाती राहों से
कोई जिस को हटा नहीं सकता

बन के फ़नकार सोचता हूँ मैं
अपनी हस्ती को जावेदाँ कर लूँ

राज़ अपना बता के दुनिया को
सारी दुनिया को राज़दाँ कर लूँ

मौत आए तो उस से हँस के कहूँ
मैं हूँ फ़नकार मर नहीं सकता

मेरी तख़्लीक़ ज़िंदा रहती है
मेरा किरदार मर नहीं सकता