मेहरबानी रात का पहला पहर है
सुब्ह-ए-ज़िंदाँ की हलाकत
शाम वहशत-गर की मौत
वाजिबुत्ताज़ीम है वो शख़्स जो पहले मरा
ख़िश्त से कूज़ा ग़नीमत
कूज़ा-ए-वहशत से वहशत-गर की ख़ाक
ख़ाक से आब-ए-नमक
बारिशों में मैं नमक का घर बनाऊँ
बर्फ़-बारी में पुराने बाँस का
तश्त में सिन्दूर छिदे सिक्के सजा कर बीच रस्ते पर रखूँ
रात के कोहरे में खिड़की खोल कर देखूँ उसे
सुब्ह तक मुर्दा परिंदे
दोपहर तक उस के होने का गुमाँ
शाम फिर कोहरा खुली खिड़की परिंदे
उस के आँगन की वही हम-साएगी
वो नहीं मरता जो पिछली रात तक जागा किया
मेहरबानी रात का पहला पहर है
लड़कियों ने घास पर नज़्में लिखीं
पासी के मटके तोड़ डाले
आँगनों में गीत गाए घर गईं
बाशों में धूप सी उस आँख ने देखा मुझे
किस को जंगल चाहिए किस को समुंदर चाहिए
ये हया-आलूद शाम
खिड़कियों से खिड़कियों तक झिलमिलाती जा रही है
क़िस्सा-गर ज़िंदाँ से चल कर आए हैं
आँगनों को साफ़ कर लो
लड़कियों को शाम का खाना खिला दो
शाम से पहले सुला दो
वहशतों की नींद कच्ची आँख को ज़ेबा नहीं
शाम ख़्वाब-ए-क़िस्सा-गर है क़िस्सा-ए-ज़िंदान-ए-शाम
मेहरबानी रात का पहला पहर है
नज़्म
फ़ना के लिए एक नज़्म
मोहम्मद अनवर ख़ालिद