इक रोज़ मैं ने अपनी मोअन्नस से ये कहा
बेगम मुशायरे को मैं आया हूँ लूट कर
बोली कि माल लूट का जल्दी से दीजिए
ताकि उसे पकाऊँ अभी पीस कूट कर
बीवी की कोर-मग़ज़ी पे बोला बिगड़ के मैं
ऐ अहमक़ुल्लज़ी तू न शायर को हूट कर
तो फ़ख़्र-ए-जाहिलाँ है तुझे क्या बताऊँ मैं
दाद-ए-सुख़न सभी ने मुझे दी है छूट कर
बोली वो सर को पीट के आँखों को कर के लाल
बिजली गिरे ग़ज़ब की तिरे सर पे टूट कर
फ़ाक़े पड़े हैं घर में तुझे फ़ख़्र-ए-दाद है
और इतना कह के रोने लगी फूट फूट कर
नज़्म
फ़ख़्र-ए-जाहिलां
असरार जामई