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फ़ैसला | शाही शायरी
faisla

नज़्म

फ़ैसला

ख़ुर्शीद रिज़वी

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अब के दीवार में दरवाज़ा रखूँ या न रखूँ
अजनबी फिर न कोई दरपय-ए-आज़ार आ जाए

एक दस्तक में मिरी सारी फ़सीलें ढा जाए
अब के दीवार में दरवाज़ा रक्खूँ या न रखूँ

एक अहराम न चुन लूँ सिफ़त-ए-दूद-ए-हरीर
कोई आए तो बस इक गुम्बद-ए-दर-बस्ता मिले

राज़-ए-सर-बस्ता मिले
लाख सर फोड़े सदा कोई न मुझ तक पहुँचे

क़ासिद-ए-मौज-ए-हवा कोई न मुझ तक पहुँचे
अब के दीवार में दरवाज़ा रक्खूँ या न रखूँ

सारे अंदेशे मगर एक तरफ़
एक तरफ़ तेरी उम्मीद

जाने किस वक़्त इधर तेरी सवारी आ जाए
अजनबी लाख कोई मेरी फ़सीलें ढा जाए

मुझ को दीवार में दरवाज़ा लगाना होगा