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अपने आप से | शाही शायरी
apne aap se

नज़्म

अपने आप से

ज़ाहिद डार

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मैं ने लोगों से भला क्या सीखा
यही अल्फ़ाज़ में झूटी सच्ची

बात से बात मिलाना दिल की
बे-यक़ीनी को छुपाना सर को

हर ग़बी कुंद-ज़ेहन शख़्स की ख़िदमत में झुकाना हँसना
मुस्कुराते हुए कहना साहब

ज़िंदगी करने का फ़न आप से बेहतर तो यहाँ कोई नहीं जानता है
गुफ़्तुगू कितनी भी मजहूल हो माथा हमवार

कान बेदार रहें आँखें निहायत गहरी
सोच में डूबी हुई

फ़लसफ़ी ऐसे किताबी या ज़बानी मानो
उस से पहले कभी इंसान ने देखे ने सुने

उन को बतला दो यही बात वगर्ना इक दिन
ओ रूह दिन भी बहुत दूर नहीं

तुम नहीं आओगे ये लोग कहेंगे जाहिल
बात करने का सलीक़ा ही नहीं जानता है

क्या तुम्हें ख़ौफ़ नहीं आता है
ख़ौफ़ आता है कि लोगों की नज़र से गिर कर

हाज़रा दौर में इक शख़्स जिए तो कैसे
शहर में लाखों की आबादी में

एक भी ऐसा नहीं
जिस का ईमान किसी ऐसे वजूद

ऐसी हस्ती या हक़ीक़त या हिकायत पर हो
जिस तक

हाज़रा दौर के जिब्रईल की या'नी अख़बार
दस्तरस न हो रसाई न हो

मैं ने लोगों से भला क्या सीखा
बुज़दिली और जहालत की फ़ज़ा में जीना

दाइमी ख़ौफ़ में रहना कहना
सब बराबर हैं हुजूम

जिस तरफ़ जाए वही रस्ता है
मैं ने लोगों से भला क्या सीखा