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यूरोप की पहली झलक | शाही शायरी
europe ki pahli jhalak

नज़्म

यूरोप की पहली झलक

जगन्नाथ आज़ाद

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बाद-ओ-बाराँ से उलझता ख़ंदा-ज़न गिर्दाब पर
इक जज़ीरा तैरता जाता है सतह-ए-आब पर

गुम कई सदियों का उस में जज़्बा-ए-तहक़ीक़ है
ये जज़ीरा आदमी के ज़ेहन की तख़्लीक़ है

जा रहा है हर घड़ी मौजों से टकराता हुआ
अपने ही अंदाज़ में अपना रजज़ गाता हुआ

बहर की अमवाज पर बहते हुए शहर-ए-जमील
हर क़दम तेरा लिए है तेरी अज़्मत की दलील

आँधियों का ज़ोर, मौजों की रवानी तुझ में है
इर्तिक़ा-ए-ज़ेहन-ए-इंसाँ की कहानी तुझ में है

हर भँवर में और हर तूफ़ान में साहिल है तू
सीना-ए-इमरोज़-ओ-फ़र्दा का धड़कता दिल है तू

तो तजल्ली ही तजल्ली है अँधेरी रात में
रौशनी का है मनारा आलम-ए-ज़ुल्मात में

रात आई जाग उठा इंसाँ का ज़ौक़-ए-बे-बिसात
आख़िरी इस का ठिकाना मर्द ओ ज़न का इख़्तिलात

किस क़दर अर्ज़ां हुए तहज़ीब के लमआत-ए-नूर
अल्लाह अल्लाह चार जानिब रौशनी का ये वफ़ूर

इस तरह से मैं ने कब देखी थी मय-ख़ाने में धूम
औरतों मर्दों का लड़कों लड़कियों का ये हुजूम

सब नशे में मस्त हैं लेकिन हैं कितने बा-ख़बर
फिर रहे हैं सब के सब इक दूसरे को थाम कर

अहमरीं साग़र, लब-ए-ल'अलीं, निगाहें मय-फ़रोश
हर तरफ़ है एक मस्ती, हर तरफ़ है इक ख़रोश

इस जगह इदराक से बेगाना कोई भी नहीं
सब हैं फ़रज़ाने यहाँ दीवाना कोई भी नहीं

अक़्ल की इस बज़्म में दीवानगी का काम क्या
ढूँढता है तू यहाँ आ कर दिल-ए-नाकाम क्या

इतनी आगाही किसी को हो ये मोहलत ही नहीं
किस की बाहें किस की गर्दन में हमाइल हो गईं

आ के आग़ोश-ए-हवस में ख़ुद यहाँ गिरता है हुस्न
किस क़दर कच्चे सहारे ढूँढता फिरता है हुस्न

जिस से ख़ीरा तेरी आँखें हैं चमक यूरोप की है
देख ऐ 'आज़ाद'! ये पहली झलक यूरोप की है