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एतिज़ार | शाही शायरी
etizar

नज़्म

एतिज़ार

अदा जाफ़री

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तुम समझती हो ये गुल-दान में हँसते हुए फूल
मेरी अफ़्सुर्दगी-ए-दिल को मिटा ही देंगे

ये हसीं फूल कि हैं जान-ए-गुलिस्तान-ए-बहार
मेरे सोए हुए नग़्मों को जगा ही देंगे

तुम ने देखी हैं दमकती हुई शमएँ लेकिन
तुम ने देखे नहीं बुझते हुए दीपक हमदम

वही दीपक जो निगाहों का सहारा पा कर
एक लम्हे के लिए जलते हैं बुझ जाते हैं

कभी इक अश्क से धुल जाते हैं सदियों के ग़ुबार
काएनात और निखर और सँवर जाती है

कभी नाकाम तमन्ना की सदा-ए-मुबहम
क़हक़हा बन के फ़ज़ाओं में बिखर जाती है

टूटते तारों के संगीत सुने हैं तुम ने
वो भी नग़्मे हैं जो होंटों से गुरेज़ाँ ही रहे

फड़फड़ाते हुए देखे हैं फ़ज़ाओं में कभी
वो फ़साने जो निगाहों से बयाँ हो न सके

कभी काँटों से बहल जाती है रूह-ए-ग़मगीं
और मा'सूम शगूफ़ों की रसीली ख़ुश्बू

नेश्तर बन के रग-ए-जाँ में उतर जाती है
हाँ यही फूल यही जान-ए-गुलिस्तान-ए-बहार

नाग बन कर कभी एहसास को डस लेते हैं