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एतराफ़ | शाही शायरी
etaraf

नज़्म

एतराफ़

शहरयार

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वो दूर बुलंद पहाड़ों पर
मल्बूस फ़रिश्तों का पहने

ख़्वाबों के मुहीब दरख़्तों की
शाख़ों पर झूला डाले हुए

परछाइयाँ छोटी बड़ी लाखों
मसरूफ़ हैं ज़ख़्म-शुमारी में

मैं एक नहीफ़ से नुक़्ते की
बाँहों में असीर तड़पता हूँ

हमवार ज़मीं पर चलने की
ख़्वाहिश के अज़ाब में जलता हूँ