EN اردو
एक शाम | शाही शायरी
ek sham

नज़्म

एक शाम

साहिर लुधियानवी

;

क़ुमक़ुमों की ज़हर उगलती रौशनी
संग-दिल पुर-हौल दीवारों के साए

आहनी बुत देव-पैकर अजनबी
चीख़ती चिंघाड़ती ख़ूनीं सराए

रूह उलझी जा रही है क्या करूँ
चार जानिब इर्तिआश-ए-रंग-ओ-नूर

चार जानिब अजनबी बाँहों के जाल
चार जानिब ख़ूँ-फ़िशाँ परचम बुलंद

मैं मिरी ग़ैरत मिरा दस्त-ए-सवाल
ज़िंदगी शरमा रही है क्या करूँ

कार-गाह-ए-ज़ीस्त के हर मोड़ पर
रूह-ए-चंगेज़ी बर-अफ़गन्दा-नक़ाब

थाम ऐ सुब्ह जहान-ए-नौ की ज़ौ
जाग ऐ मुस्तक़बिल-ए-इंसाँ के ख़्वाब

आस डूबी जा रही है क्या करूँ