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एक नज़्म | शाही शायरी
ek nazm

नज़्म

एक नज़्म

शाइस्ता हबीब

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आँखें अंधे कुएँ की मानिंद दूर अँधेरे रस्तों पर पानी को खुरच रहें हैं
गहरी धुँद की चादर ओढ़े कौन अभागन

फूट फूट के रो भी न पाई
सब्र की रोटी चुप का सालन सब ज़ाइक़ों से कड़वा ज़हर गले के अंदर

कुंद छुरी की मानिंद अटके
क्या बोले सारे लफ़्ज़ अपने लहू की गर्दिश से बे-परवाह

लब पर उतरें
मुआ'फ़ी के छिलकों को उतारुंगी रूहें कुछ न कहेंगी

देना सब कुछ इस को
वापस कुछ भी न लेना

हाथ तुम्हारे सदा ही भर रहेंगे जज़्बों के
फूलों से

मत कुछ कहना वर्ना सारा मलबा तुम्हारे ऊपर आन गिरेगा
कच्ची दीवारों के नाते तस्वीरों के रंगों से भी कच्चे

हाथों वार ज़बानों पर गुज़री बातों के सारे सुख इक इक कर के मिटते जाते हैं
मन की सारी शक्ति बीच समुंदर डूब गई है

हवा में आँसू गैस के गोले छूटें तो सब रोना एक ही वक़्त में रोलें
त्याग का लम्बा रस्ता बा नहीं फैलाए अपनी ओर बुलाता है

आगे जाओ सब कुछ सुनो
आओ इस आवाज़ के रस्ते पर चलते जाएँ

दीवार दूर से दूर