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एक नज़्म | शाही शायरी
ek nazm

नज़्म

एक नज़्म

क़य्यूम नज़र

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रात के ख़्वाबों का इक तुर्फ़ा समाँ होता है
सुब्ह के गूँजते आवाज़े से चौंक उठता हूँ

साँस लेता हूँ बहर-ए-कैफ़ गुमाँ होता है
उँगलियाँ फेरता हूँ अपने बदन पर अब तो

कारवाँ होश का यादों का रवाँ होता है
ये नया दिन है मगर वक़्त कहाँ ठहरा है

सामने खूँटी से लटका है मिरा गर्म लिबास
जिस पे ख़ुद-साख़्ता पाबंदियों का पहरा है

जिन के साए में अभी मुझ को रवाँ होना है
मेरी तहज़ीब का हर ज़ख़्म बहुत गहरा है

और भी जागने वाले हैं ख़याल आते हैं
सोचता हूँ मिरी सूरत कहीं वो भी उठ कर

दर्द सहते हैं कभी दर्द को सहलाते हैं
जाने किस जुर्म की पादाश में यूँ घुलता हूँ

लोग तो वर्ना इसी बात पे इतराते हैं
दूर बे-ध्यानी में घड़ियाल सदा देता है

ज़ेहन दिल जिस्म हर इक चीज़ चमक उठती है
मार कर कोड़े कोई जैसे उठा देता है

डर के सब भागते हैं खेतों को मैदानों को
वक़्त भटके हुओं को रह पे लगा देता है

लहलहाते हुए गंदुम के सजीले पौदो
मुस्कुराते हुए खेतों के मुहाफ़िज़ पेड़ो

झूमती टहनियों को वज्द में लाते पत्तो
मुझ को क़ुदरत दो कि मैं तुम को सराहूँ चाहूँ

शहर के सेहर को तोड़ूँ तुम्हें पालूँ देखूँ