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एक नज़्म कि ग़ज़ल कहें जिसे | शाही शायरी
ek nazm ki ghazal kahen jise

नज़्म

एक नज़्म कि ग़ज़ल कहें जिसे

सलमान सरवत

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रिवायतों का लिबास पहने
गुज़िश्तगाँ का निसाब थामे

तराज़ियत के निगार-ख़ानों में बैन करती
घुटन-ज़दा क़ाफ़ियों रदीफ़ों के दरमियाँ

मुंतशिर ख़यालों के बोझ अपने दिल-ए-हज़ीं पर
उठाए फिरती हुई इकाई

वुफ़ूर-ए-तख़्लीक़ से परेशाँ
क़दम क़दम फ़र्द फ़र्द होती बिखर रही है

उसी के जुज़ हैं
जो इस पे हावी हुए तो ऐसे

कि आप अपनी अलग ही दुनिया बसा रहे हैं
अजीब दुनिया

जो कहकशाँ से अलग खड़ी है
जो अपने मेहवर पे दम-ब-ख़ुद है

मगर वो आज़ुर्दा कहकशाँ
गर्दिशों से लड़ती

कई ज़माने गुज़ार आई
मुकालमे से मुकाशफ़े तक

मुशाहिदे से मुआ'मले तक
कई सफ़र थे कई पड़ाव

जहाँ वो दीवाना-वार फिरती रही
ख़लिश कम हुई न उनवाँ ही बन सका

और ख़याल तश्कील के मराहिल में गुम रहा