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एक नज़्म | शाही शायरी
ek nazm

नज़्म

एक नज़्म

गोपाल मित्तल

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वो इक आवारा ओ मजनूँ
वो इक शाएर

जिसे अपनी शराफ़त के तहफ़्फ़ुज़ में
किया था क़त्ल इक मुद्दत हुई मैं ने

वही आवारा ओ मजनूँ
वही शाएर

अदम के गोशा-ए-तारीक से बाहर निकल कर
क़हक़हे मुझ पर लगाता है

वो कहता है
कभी ऐसा भी होता है

कि सई-ए-ख़ुद-कुशी नाकाम रहती है