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एक मुलाक़ात | शाही शायरी
ek mulaqat

नज़्म

एक मुलाक़ात

साहिर लुधियानवी

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तिरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल लेकिन
तिरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं

ये जान कर तुझे क्या जाने कितना ग़म पहुँचे
कि आज तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं

किसी की हो के तू इस तरह मेरे घर आई
कि जैसे फिर कभी आए तो घर मिले न मिले

नज़र उठाई मगर ऐसी बे-यक़ीनी से
कि जिस तरह कोई पेश-ए-नज़र मिले न मिले

तू मुस्कुराई मगर मुस्कुरा के रुक सी गई
कि मुस्कुराने से ग़म की ख़बर मिले न मिले

रुकी तो ऐसे कि जैसे तिरी रियाज़त को
अब इस समर से ज़ियादा समर मिले न मिले

गई तो सोग में डूबे क़दम ये कह के गए
सफ़र है शर्त शरीक-ए-सफ़र मिले न मिले

तिरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल लेकिन
तिरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं

ये जान कर तुझे किया जाने कितना ग़म पहुँचे
कि आज तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं