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एक मंज़र आसमाँ जैसा | शाही शायरी
ek manzar aasman jaisa

नज़्म

एक मंज़र आसमाँ जैसा

मुनीर अहमद फ़िरदौस

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मैं वक़्त के ख़ेमे से निकला...
तो उलझनों की चिलचिलाती धूप में

ज़ीस्त मुझ से लिपट पड़ी
और सुलझनों का सफ़र मेरे तलवों पर लिख दिया

इंकार से ना-आश्ना
मैं ने पाँव पर सफ़र बाँध लिया

अब आसमान जैसा एक हसीं मंज़र बना कर
मुझे सफ़ेद परिंदों के हवाले करना है

दिल की ज़मीन से नफ़रत की जड़ें काट कर
वफ़ा-परवर जज़्बे काश्त कर के

धड़कनों को इक नई तरतीब में ढालना है
बे-रहम साअतों को

मेहरबान लम्हों की दास्तान सुनानी है
अँधेरों को रौशनी के ग़िलाफ़ में बंद करना है

अन-गिनत तारीक आँखों में
धनक रंगों से ज़िंदगी की तस्वीर बनानी है

तासीर को अपने लहजे में पनाह दे कर
आसमान तक दुआओं का रास्ता खोजना है

हर्फ़-आश्नाई से अपना मुक़द्दर आसमानों पर लिख कर
बंद मुट्ठी में चिंघाड़ते सुकूत और अंदर भरी चीख़ को

गुम-नामी के जज़ीरों में दफ़्न करना है
आसमाँ जैसे इस हसीन मंज़र को तख़्लीक़ कर के

ज़मीन को आसमान बनाना है