हँसो कि सुर्ख़ ओ गर्म ख़ून फिर सफ़ेद हो गया
हँसो कि नुक़्ता-ए-उमीद फिर ख़ला के दाएरे में आज क़ैद हो गया
हँसो कि दश्त-ए-आरज़ू में थक थका के सब बगूले सो गए
हँसो कि शहर ज़िंदगी का बे-फ़सील हो गया
हँसो कि साया-ए-सलीब फिर तवील हो गया

नज़्म
एक ख़ुश-ख़बरी
शहरयार