समुंदर ने ये ख़ाली सीपियाँ
कैसे उगल दीं
आ के साहिल पर
मैं पहले भी कहा करता था
तुझ को याद हो शायद
कि तेरी रूह के गहरे समुंदर में
मेरा दिल एक सीपी है
मगर मैं ने कभी तेरी मोहब्बत को नुमाइश में नहीं रक्खा
मैं उन लोगों से छिड़ता था
जो अफ़्साने कहा करते हैं यारों से मोहब्बत के
मगर वैसे भी दुनिया में किसी की कौन सुनता है
सुनाता है कोई जब अपनी बातें
सुनने वाली अपनी बातें याद करते हैं
मगर ये कैसी रातें हैं
कि अक्सर सोते सोते चौंक उठता हूँ
मुझे तो नींद भी इक क़र्ज़ चश्म-ए-अम्बर है
मैं सोता जागता रहता हूँ
इक ऐसे मुसाफ़िर की तरह
जिस को किसी छोटे से स्टेशन पे
गाड़ी से उतरता हो
तेरे हिलते हुए हाथों से
ये कैसी हवा आई
मिरी जाँ तुझ से रुख़्सत हो के
मैं कितना अकेला था
और दुनिया सो रही थी
उस दिल की तरह
जिस ने अभी रोना न सीखा हो
कोई कोंपल
कभी ज़ोर-ए-नुमू में
संग-बस्ता ख़ाक से लड़ती हुई
बाहर निकलती है
कि जैसे शोख़ बच्चे
हाथ और दामन छुड़ा कर
घर से बाहर भाग जाएँ
और गुज़रगाहों पे सो जाएँ
गुज़र-गाहों से बच्चों को उठा कर लाओ
और गहवारा-ए-जाँ में सुला दो
वो जागेंगे तो उन के ख़्वाब पूरे हो चुके होंगे
सो आख़िर यूँ हुआ
उम्मीद की शाख़ों पे ऐसे बर्ग-ओ-बार आए
मिरी जाँ
तेरा मिलना तिश्नगी के दश्त में
वो आब-ए-ताज़ा था
जो शबनम भी है दरिया भी है
और रूह में ग़म हो तो आँसू भी
मुझे आँसू नहीं मिलते नहीं मिलते नहीं मिलते
वो शब भी कैसी शब थी
जिस का नक़्द-ए-सुब्ह अब तक क़र्ज़ है
जो मुझ से पूछता है
अब मेहनत को कहाँ ले जाओगे
किस दिल में रखोगे
मैं चुप था
तू भी चुप थी
और ख़ामोशी के लम्हों के
गुज़रते क़ाफ़िले
साँसों की आवाज़-ए-जरस जा रहे थे
एक मंज़िल की तरफ़
जो निस्फ़ जन्नत निस्फ़ दोज़ख़ थी
मैं कितना संग-दिल हूँ
जो तेरी जन्नत पे ख़ुश होता नहीं
दोज़ख़ पे हँसता हूँ
नज़्म
एक ख़त
सलीम अहमद