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एक कमरा-ए-इम्तिहान में | शाही शायरी
ek kamra-e-imtihan mein

नज़्म

एक कमरा-ए-इम्तिहान में

अमजद इस्लाम अमजद

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बे-निगाह आँखों से देखते हैं पर्चे को
बे-ख़याल हाथों से

अन-बने से लफ़्ज़ों पर उँगलियाँ घुमाते हैं
या सवाल-नामे को देखते ही जाते हैं

सोचते नहीं इतना जितना सर खुजाते हैं
हर तरफ़ कनखियों से बच बचा के तकते हैं

दूसरों के पर्चों को रहनुमा समझते हैं
शायद इस तरह कोई रास्ता ही मिल जाए

बे-निशाँ जवाबों का कुछ पता ही मिल जाए
मुझ को देखते हैं तो

यूँ जवाब कापी पर हाशिए लगाते हैं
दाएरे बनाते हैं

जैसे उन को पर्चे के सब जवाब आते हैं
इस तरह के मंज़र मैं

इम्तिहान-गाहों में देखता ही रहता था
नक़्ल करने वालों के

नित-नए तरीक़ों से
आप लुत्फ़ लेता था दोस्तों से कहता था

किस तरफ़ से जाने ये
आज दिल के आँगन में इक ख़याल आया है

सैकड़ों सवालों सा इक सवाल लाया है
वक़्त की अदालत में

ज़िंदगी की सूरत में
ये जो तेरे हाथों में इक सवाल-नामा है

किस ने ये बनाया है
किस लिए बनाया है

कुछ समझ में आया है
ज़िंदगी के पर्चे के

सब सवाल लाज़िम हैं सब सवाल मुश्किल हैं
बे-निगाह आँखों से देखता हूँ पर्चे को

बे-ख़याल हाथों से
अन-बने से लफ़्ज़ों पर उँगलियाँ घुमाता हूँ

कोई देखता है तो
दाएरे बनाता हूँ

हाशिए लगाता हूँ
या सवाल-नामे को देखता ही जाता हूँ