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एक इश्क़ की नस्ली तारीख़ | शाही शायरी
ek ishq ki nasli tariKH

नज़्म

एक इश्क़ की नस्ली तारीख़

सय्यद काशिफ़ रज़ा

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मैं उस की साँसें सूँघता हुआ
दरियाओं और मैदानों में दाख़िल हुआ था

और वो मुझे ज़रख़ेज़ ज़मीन की तरह मिली थी
मैं तारीक रात में जन्मा हुआ महताब था

और वो शिरयानों से ख़ून उछाल देने वाली तमाज़त थी
मैं रेत की कुशादा-दामनी था

और उस की पुश्त सरमा के सूरज की तरह थी
मैं एड़ लगाए हुए घोड़े की नंगी पीठ पर कूदने वाले का बेटा था

और उस की आँखों में
जाटों की ख़ूँ-रेज़ सदियाँ चुनौती देती थीं

वो गुनाह की तरह नमकीन थी
और वो ज़ाइक़ा थी जो चक्खे बग़ैर ज़बान पर फिर जाता था

और मैं उस की गुद्दी में दाँत गाड़ देने की हसरत में था
वो धरती पर फैला हुआ सरसों का खेत थी

और उस के हाथ गंदुम काटने वाली माँ ने बनाए थे
और उस की नाफ़ के गिर्द भरा-पुरा शिकम था

और उस की घुंडी में ऐसी जान थी
कि उस का बाप मौर्या अहद में पत्थर चमकाने का कारी-गर मालूम होता था

और उस के जिस्म में तवे पर सुर्ख़ की हुई रोटी की ख़ुशबू थी
और मैं आँतों से उगी हुई आरज़ू था

और मैं तलवारों की मौसीक़ी पर पढ़ा हुआ रजज़ था
और मैं तीर खाए हुए घोड़े से गिरी हार था

और वो ताने से दहकी हुई वंगार थी
और वो ऐसी जीत थी

जिस की याद में
ज़मीन पर कोई लाठ गाड़ी जा सकती थी