चाँद क्यूँ अब्र की उस मैली सी गठरी में छुपा था
उस के छुपते ही अंधेरों के निकल आए थे नाख़ुन
और जंगल से गुज़रते हुए मासूम मुसाफ़िर
अपने चेहरों को खरोंचों से बचाने के लिए चीख़ पड़े थे
चाँद क्यूँ अब्र की उस मैली सी गठरी में छुपा था
उस के छुपते ही उतर आए थे शाख़ों से लटकते हुए
आसेब थे जितने
और जंगल से गुज़रते हुए रहगीरों ने गर्दन में उतरते
हुए दाँतों से सुना था
पार जाना है तो पीने को लहू देना पड़ेगा
चाँद क्यूँ अब्र की उस मैली सी गठरी में छुपा था
ख़ून से लुथड़ी हुई रात के रहगीरों ने दो ज़ानू प गिर कर,
''रौशनी, रौशनी''! चिल्लाया था, देखा था फ़लक की जानिब,
चाँद ने गठरी से एक हाथ निकाला था, दिखाया था चमकता हुआ ख़ंजर
नज़्म
एक दौर
गुलज़ार