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एक और शराबी शाम | शाही शायरी
ek aur sharabi sham

नज़्म

एक और शराबी शाम

दर्शिका वसानी

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चलो आज एक और कोशिश होगी
फिर एक शाम डूब जाएगी शराब में

ज़िंदगी के अँधेरे सर्द टुकड़े
जाम में घुल कर होंठों के हवाले होंगे

ज़बाँ पे थिरकती तिश्नगी धीरे धीरे
हल्क़ तक फैल जाएगी

ख़ामोशी का लिबास पहने
कोने में क़ैद तन्हाई रिहा होगी

और नस नस में दौड़ कर रक़्स करेगी
मेरे लहू में बह रहे उस बे-क़ाबू शख़्स को

सँभालने की मशक़्क़त होगी
सुलगती रूह उस की यादों की भाप में

तप कर सुर्ख़ लाल हो जाएगी
आँखों से गर्म बुलबुले टपकने लगेंगे

जाम-दर-जाम अंदरूनी उबाल
पिघलता जाएगा

जब आँखों के पैमाने बिल्कुल ख़ाली हो जाएँगे
तब उस लाल बिस्तर पर

मेरी नींदें तुम्हारे ख़्वाबों को
आग़ोश में ले कर सो जाएगी