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एक और शहर | शाही शायरी
ek aur shahr

नज़्म

एक और शहर

नून मीम राशिद

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ख़ुद-फ़हमी का अरमाँ है तारीकी में रू-पोश
तारीकी ख़ुद बे-चशम-ओ-गोश!

इक बे-पायाँ उजलत राहों की अलवंद!
सीनों में दिल यूँ जैसे चश्म-ए-आज़-ए-सय्याद

ताज़ा ख़ूँ के प्यासे अफ़रंगी मर्दान-ए-राद
ख़ुद देव-ए-आहन के मानिंद

दरिया के दो साहिल हैं और दोनों ही नापैद
शर है दस्त-ए-सियह और ख़ैर का हामिल रू-ए-सफ़ेद

इक बार-ए-मिज़्गाँ इक लब-ए-ख़ंद
सब पैमाने बे-सर्फ़ा जब सीम-ओ-ज़र मीज़ान

जब ज़ौक़-ए-अमल का सर-चश्मा बे-म'अनी हिज़यान
जब दहशत हर लम्हा जाँ-कंद

ये सब उफ़ुक़ी इंसान हैं ये उन के समावी शहर
क्या फिर उन की कमीं में वक़्त के तूफ़ाँ की इक लहर?

क्या सब वीरानी के दिल-बंद