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एक और रात | शाही शायरी
ek aur raat

नज़्म

एक और रात

गुलज़ार

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रात चुप-चाप दबे पाँव चले जाती है
रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं

काँच का नीला सा गुम्बद है उड़ा जाता है
ख़ाली ख़ाली कोई बजरा सा बहा जाता है

चाँद की किरनों में वो रोज़ सा रेशम भी नहीं
चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है

और सन्नाटों की इक धूल उड़ी जाती है
काश इक बार कभी नींद से उठ कर तुम भी

हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता है