शाम शाम जैसी थी रास्तों पे हलचल थी
काम करने वाले सब
अपना फ़र्ज़ अदा कर के
अपने अपने मैदाँ से
कुछ थके तो कुछ हारे
अपने घर को जाते थे
भीड़ थी दुकानों पर
घर को लौटने वाले
अगली सुब्ह की ख़ातिर
रुक के माल लेते थे
हर किसी को जल्दी थी
और शाम ढलती थी
एक हम थे आवारा
कल न था कोई सौदा
इस लिए सड़क पर हम
धीरे धीरे बढ़ते थे
भागते हुए लोगों पर निगाह करते थे
और उन पे हँसते थे
अपनी मस्तियों में गुम
बे-नियाज़ दुनिया से
आगे बढ़ रहे थे हम
मुस्कुरा रहे थे हम
लेकिन एक मंज़िल पर
हम ठिठक गए इक दम
एक अजनबी लड़की
हम पे इक नज़र कर के
ख़ूब ख़ूब हँसती थी
मुँह को फेर लेती थी
फिर पलट के वो हम को देखती थी हँसती थी
जाने अपने जैसों पर
उस की खिलखिलाहट ने
कौन सा असर डाला
किस ने जाने क्या सोचा
किस ने जाने क्या समझा
है ख़बर मुझे अपनी
मेरी मस्तियाँ सारी
शाम के धुँदलके में
दूर होती जाती थीं
ख़ुद पे शर्म आती थी
और वो शोख़ सी लड़की
हम पे हँसती जाती थी
अब मिरी निगाहों को अपना ध्यान आया था
अजनबी सी लड़की ने दिल बहुत जलाया था
अब मैं ज़ात का अपनी ख़ुद तवाफ़ करता था
अपने अक्स को अपने आइने में तकता था
अब नियाज़-मंदी थी मेरी बे-नियाज़ी में
अब वो अजनबी लड़की
दूसरे इक आवारा
पर निगाह करती थी
उस को देख कर फिर वो
बे-पनाह हँसती थी
वो अजीब लड़की थी वो अजीब लड़की थी
नज़्म
एक अजनबी लड़की
अफ़ीफ़ सिराज