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ए'तिराफ़ | शाही शायरी
etiraf

नज़्म

ए'तिराफ़

इनाम-उल-हक़ जावेद

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हक़ीक़ी दुश्मनी को दोस्ती के मक्र पर वर पैरहन पर
ख़्वाह इस में फ़ाएदा ही क्यूँ न हो

तरजीह देता हूँ
कि मेरी तर्बियत में

या मिरे माहौल में या फिर जिबिल्लत में
यही ख़ामी वो ख़ामी है

जो वज्ह-ए-तिश्ना-कामी है
कि मैं सर के एवज़ भी

सच से रू-गर्दां नहीं होता
कभी लालच में आ कर झूट का मेहमाँ नहीं होता