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ए'तिराफ़ | शाही शायरी
etiraf

नज़्म

ए'तिराफ़

अंजुम ख़लीक़

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हर शाख़-ए-तमन्ना पर मेरी हर-चंद कि बर्ग-ओ-बार लगे
वो पेड़ जो मेरे नाम का है, हर आँख को साया-दार लगे

पर, एक कमी सी रहती है
कुछ वक़्फ़-ए-तबस्सुम होंट भी हैं, कुछ रस्ता तकती आँखें भी

कुछ वो हैं जिन से मिलने को बे-ताब हों मेरी बाँहें भी
पर, एक ख़लिश सी रहती है

ये दाद-ओ-सताइश के तमग़े, कुछ शेरों पर, कुछ कामों पर
और इतना इस्तेहक़ाक़ भी जो होता है सुब्हों शामों पर

पर, इक महरूमी रहती है
जो इक महरूमी, एक ख़लिश जो एक कमी सी रहती है

वो एक कमी, वो एक ख़लिश, वो इक महरूमी तुम ही तो हो