सियाह रातों के बे अमाँ रास्तों पे छिटके हुए ये चेहरे
कि जैसे पतझड़ में बिखर गए हों
बस इन की बेचैन ज़ख़्म-ख़ुर्दा सी पुतलियों में रक़म है बाक़ी
जो घूमती हैं जो मुंतज़िर हैं
मरे ज़माने में फल नहीं हैं फ़क़त अख़ज़ाँ के ज़वाल हैं और ऐसे तूफ़ाँ कि देखते देखते हज़ारों
दरख़्त जड़ से उखड़ गए हैं उम्मीद ना-आश्ना दिलों में
जो दर्द है राज़ बिन चुका है, जो लफ़्ज़ हैं उजड़ रहे हैं
मुझे इस अपनी ख़िज़ाँ में जो चीज़ याद है वो हर एक रास्ते
मैं अन-गिनत पुतलियों की गर्दिश का कर्ब जैसे
हज़ार-हा मोम-बत्तियाँ जो मिरे बदन और मेरी आँखों
को छू कर के बुझती हूँ और अँधेरे को मेरे अंदर उतारती हूँ
ये पुतलियाँ जिन में घूमते और डूबते हैं सभी सितारे
ये आसमानों के तकने वाले तबाह चेहरे
निढाल के तजरबे को मुरक़्क़ओं में सफ़ ब सफ़ मुंतज़िर हैं मेंह के
जो उन की पामालियों को धो कर सफ़ेद कर दे
जले बुझे और ख़ाम रंगों की चीक़-लश से जगह जगह शिक़
ये मर्ग अम्बोह जिस की ता में दबी हुई आग की हरारत
है आख़िरी फ़ैसलों का मौसम कि आईना वार में यहाँ पे
ख़ुद अपने चेहरे को ढूँढता फिर रहा हूँ शायद खो चुका हूँ
शायद आज भी
सुब्ह हुई और नई नई उम्मीदें जागें
शायद आज भी सूरज अपनी पूरी ताबानी से चमके
शायद दिल मोह लेने वाली कोई सूरत जाते जाते
मुड़ कर देखे
रूखी सूखी भी ने'मत से बढ़ कर मज़ा दे
शायद आज भी कोई मुझे फिर पास बिठा ले
अन-होनी मीरास यही हैं दुनिया भर की मा'मूली बातें
हर दिन कितना नया मगर उतना ही पुराना
वही हैं सारे रस्ते और गर्दिश में आँखें
सूइयाँ और मिट्टी के प्याले
सदा ही मँगते हाथ कभी न थकते पाँव
बर जूँ वाले शहर सभी मकड़ी के जाले
और मिट्टी की नंगी भूकी सदियों गाँव
शायद आज भी पल दो पल को
दुनिया की हर बात लगे जैसे इन मिल बेजोड़ फ़साना
आग की कोंपल जैसी सुब्ह में
कौन सिरहाने बैठा मुझ से
हँस हँस कर बातें करता है
कितना रौशन ख़्वाब ये मेरे साथ उठा है
कहने को देखा है क्या क्या
लेकिन फिर भी
जाने क्या कुछ दर-पर्दा है
शायद आज समझ में आए क्या देखा है क्या धोका है
कितनी उम्मीदों पर क़ाएम
है ये दुनिया और यहीं पर
किसी तरफ़ कोनों खुदरों में
अपनी हवा में हम भी तुम भी
जैसे आज हो सब कुछ दाइम
एक ज़रा जी बहला तो फिर क्या क्या कुछ लगता है सच्चा
सारे जाल सुहाने सारा यहाँ का करना भरना अच्छा
शायद आज भी
नज़्म
दूसरी नज़्म
सलाहुद्दीन परवेज़