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दूसरी मुलाक़ात | शाही शायरी
dusri mulaqat

नज़्म

दूसरी मुलाक़ात

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

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कह नहीं सकता कहाँ से आए हो, तुम कौन हो
ऐसा लगता है कि ये सूरत है पहचानी हुई

ख़ाक में रौंदा हुआ चेहरा मगर इक दिलकशी
आँख में हल्का तबस्सुम, दिल में कोई टीस सी

पाँव से लिपटी हुई बीते हुए लम्हों की गर्द
पैरहन के चाक में गहरे ग़मों की ताज़गी

पुर्सिश-ए-ग़म पर भी कह सकना न अपने जी का हाल
कुछ कहा तो बस यही कि तुम पे कुछ बीती नहीं

राह में चलते हुए ठोकर लगी और गिर पड़े
यूँही काँटे चुभ गए हैं, फट गई है आस्तीं

याद आता है कि तुम मुझ से मिले थे पहली बार
इक कहानी में न जाने किस की थी लिक्खी हुई

और मैं ने इस तरह के आदमी को देख कर
दिल में सोचा था कि उस से आज कर लूँ दोस्ती!