मैं भूल जाऊँ तुम्हें
अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त वो
कोई ख़्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ
कम-बख़्त!
भुला न पाया वो सिलसिला
जो था ही नहीं
वो इक ख़याल
जो आवाज़ तक गया ही नहीं
वो एक बात
जो मैं कह नहीं सका तुम से
वो एक रब्त
जो हम में कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब
जो कभी हुआ ही नहीं
नज़्म
दुश्वारी
जावेद अख़्तर