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दुश्मनों के दरमियान शाम | शाही शायरी
dushmanon ke darmiyan sham

नज़्म

दुश्मनों के दरमियान शाम

मुनीर नियाज़ी

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फैलती है शाम देखो डूबता है दिन अजब
आसमाँ पर रंग देखो हो गया कैसा ग़ज़ब

खेत हैं और उन में इक रू-पोश से दुश्मन का शक
सरसराहट साँप की गंदुम की वहशी गर महक

इक तरफ़ दीवार-ओ-दर और जलती-बुझती बतियाँ
इक तरफ़ सर पर खड़ा ये मौत जैसा आसमाँ