तन सुख का इक सागर चाहे
जिस में ख़ूब नहाए
मन की है ये चंचल आशा
जो चाहे सो पाए
दुनिया चैन नगर बन जाए
तन बेचैन है
मन बे-क़ाबू
कौन उन्हें समझाए
दास ग़ुलाम की आशा कैसी
जनम जनम मर जाए
मन की बात में कह नहीं सकता
मन-मर्ज़ी से रह नहीं सकता
कुछ नहीं मेरे बस में
बस घुल गई जीवन रस में
दुनिया
कैसे मुझ को भाए
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नज़्म
दुनिया कैसे मुझ को भाए
अब्दुल मजीद भट्टी